पूर्ण परिशुद्ध प्रेम..
पूर्ण परिशुद्ध प्रेम..
प्रतिदिन
सवेरे सवेरे जब मैं
मंदिर में बैठती हूँ
ठाकुर जी की सेवा पूजा करने तो
अक्सर ही ना जाने क्यूँ
प्रभु की मनमोहक मूरत में
दिखती है तुम्हारी सूरत..
जब मैं बजाती हूँ मंदिर में घंटी तो
उसकी ध्वनि की प्रतिध्वनि में भी तो
तुम्हारी ही आवाज़ सुनाई देती है
मानो तुमने हौले से कुछ कहा हो..
जब पूरी तन्मयता से जलाती हूँ
लौबान युक्त अगरबत्ती तो
उसमें से उठता धुऑं व सुगंध
अपनी गिरफ़्त में लेकर कराते है मुझे
तुम्हारे आस पास होने का एहसास..
जब अर्पित करती हूँ श्री चरणों में
सुगंधित सूर्ख लाल गुलाब के पुष्प
तो लगता है कि समर्पित कर दिया है
मैनें मेरा ह्रदय रूपी पुष्प भी..
जब लगाती हूँ ठाकुर जी को
चंदन चावल तो लगता है कि
तुम्हारे स्पर्ष की शीतलता
उतर जाती है मेरे अंतर्मन की
गहराईयों में...
और जब उतारती हूँ मैं
भाव विहल होकर आरती
तो उसके आलौकिक प्रकाश में
हर तरफ हर ओर सहस्त्र रूपों में
नज़र आते हो तुम ही..
अखण्ड ..अथाह ...अनंत....
सोचती हूँ मैं ...
हर रोज़ ...
क्या यही है प्रेम
हॉं ..शायद यही तो है
पूर्ण परिशुद्ध प्रेम..
