पूरे मुल्क को भिगाऊँ
पूरे मुल्क को भिगाऊँ
क़तरा-क़तरा बहे लहू का
कुछ कर्ज तो चुकाऊँ
वंदे- मातरम की गूँज से
रौशन जहाँ कर जाऊँ
कुर्बानियों की शमां को
हर दिल में जलाऊँ।
ऊँचाइयों की हदों के पार
तिरंगे को मैं लहराऊँ
अगर मौका मिले तो
जिंदगी तेरे ही नाम कर
जाऊँ
तरक्की के लिए तेरी
एक इंकलाब लाऊँ
मैं हर चेहरे पे मुस्कान
बन के छा जाऊँ
सूरज चाँद तारों की चमक
से गुलिस्तां को चमकाऊँ
तेरी खूबी के चर्चों
को दरख्तों पे खुदवाऊँ
उठे कोई नज़र तो उसे
मैं नोंच कर खाऊँ।
काली का रूप बनकर
दुश्मन को निगल जाऊँ
आरज़ू है मेरी मैं
वतन के कुछ काम तो
आऊँ
कलम से अपनी
इश्क़-ए-वतन की बारिश
पूरे मुल्क को भिगाऊँ।
