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Sulakshana Mishra

Abstract

4.7  

Sulakshana Mishra

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पुरुष की वेदना

पुरुष की वेदना

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दिल टूटता है इसका भी

दर्द इसको भी होता है

हिम्मत इसकी भी जवाब देती है

तबियत इसकी भी निराश होती है।


लेकिन बटोर लेता है ये

अपने दिल की बिखरे टुकड़ों को

एक बार फिर से खड़े होने को।

बहती इसकी भी आँखों से 

कभी अविरल अश्रुधारा है।


पर दिखते नहीं आँसू इसके

ये शिव बन उनका विष 

अंदर ही अंदर पी लेता है।

दिल मे धधकते अंगारे इसके भी

पर दर्द ये सारे

अकेले ही सह लेता है।


इसके गमों की कभी

नुमाइश नहीं होती।

जुबां पे इसके कभी

शिकायत नहीं होती।


होता है इसके पीछे

एक कारवाँ हमेशा।

पर साथ इसके हमेशा

इसकी तन्हाई होती है।


ये नींव का पत्थर बन

सहता सबका भार ।

जता नहीं पाता ये कभी

अपने दिल में छुपा प्यार।


सन्नाटों को चीरती अक्सर

इसकी खामोश सी आवाज़ है।

गिरता है ये अक्सर

पर उठ कर करता

ये हर बार एक नया आगाज़ है।


अजीब अंतर्द्वंद्व है उसका

अजीब है एक पुरुष की वेदना

जन्म मिला है चक्रव्यूह में

और ताउम्र उसी को है भेदना।


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