पुरुस्कार
पुरुस्कार
पुरुस्कार मिले या तिरिस्कार
कुछ न कुछ लिखता रहूंगा।
ईश्वर के आशीष से
जब तक अंतर में कुछ विचार हैं,
उन्हें पहनाने को भाषा का चोला,
कलम कागज़ों पे घिसता रहूंगा ।
अग्नि में ताप हरदम,
जल में सदा तरलता,
कन कन में इस जगत के,
है यूं ही सहज चपलता,
नहीं चाहिए इन्हें तो
तालियां किसी की,
डिगाती नहीं इन्हें तो
आलोचना किसी की
कोई भले न जाने,
कोई भले न माने,
तपस्वी की भांति मैं भी,
ये व्रत वरन करूंगा
मिले पुरुस्कार या तिरिस्कार,
कुछ न कुछ लिखता रहूंगा।
ईश्वर के आशीष से
जब तक अंतर में कुछ विचार हैं,
हो कर अभय,
मैं कलम घिसता रहूंगा।
हां, कुछ न कुछ लिखता रहूंगा।