पुनः अवतरित हो कान्हा
पुनः अवतरित हो कान्हा
मास भाद्पद तिथि अष्टमी,
एक नए युग का जन्म हुआ
मथुरा के कारावास में
धरती को संकट मुक्त कराने
कान्हा आये
तूफ़ानी काली रात में।
धर्म ही कर्म है,
कर्म ही धर्म है
हे कान्हा,
तुम बिन कौन सिखाये
जग में कृष्ण और
कृष्ण में जग है
ऐसी भक्ति कौन जगाये
तुम पर कैसे कुछ लिखूँ
मैं, कान्हा...
शब्द भी तुम और
कलम तुम्हीं हो
मन में उपजा भाव तुम्हीं और
उन भावों का आकार तुम्हीं हो।
जूझ रही है मेरी धरती
नित नए पैदा होते
कंसों के अत्याचारों से
मानवता अब
सिसक रही है
भौतिकता और
लालच के घेरों में
कहीं कालिया
कल-कारखानों का
करता गंगा-यमुना को
निष्प्राण
वहीं प्रदूषण
पूतना करवा रही
नवजातों को विषपान...
एक बार पुनः अवतरित हो
मेरे कान्हा....
शुद्धित करने इस धरती को
भौतिकता और लालच के
अशुद्ध विचारों से..
चलाओ तुम्हारा चक्र सुदर्शन
जिससे हो धरती अंबर,
ग्रह नवग्रह सब प्रकाशमान
फिर छेड़ो मुरली की ऐसी तान
जिससे सबके अधरों पर
फैले मधुर मुस्कान।।
