पत्थर
पत्थर
काश मैं पत्थर होता,
सुख दुख का संताप न होता।
भरण-पोषण पोषण का मर्म न होता,
जन्म मरण का क्लेश न होता।
है पत्थरों का भी अस्तित्व,
शैल-शिखर जैसे दिग्भ्रमित,
हे मानव के राजहंस,
कण-कण के अस्तित्व,
विश्व की मानवता,
क्या किसी ठिठुरे पत्थर से कम है?
जो निकल गई सारी मनुष्यता,
पत्थर-सी पथराई आँँखें,
नित- नूतन स्पर्श की व्याकुल आँँखें।
दिव्य की प्यासी आँखें,
समरसता की व्याकुल आँखें।
टेढ़े-मेढ़े ,नुकीले पत्थर पर चलता हूँँ,
टेढ़े-मेढ़े नुकीले पत्थर को सुघड़ शिवलिंग बनाता हूँँ।