पत्थर का शहर
पत्थर का शहर
एक अनसुनी सी धुन छेड़ी उस मुसाफ़िर ने,
एक अलबेला सा गीत सुना मैंने राहों में।
कांच सा मेरा ये अक्स है,
उसपे पत्थर का ये शहर है,
ना जाने कहां हम खो गए,
बेगानी इन राहों में हम कैद से हो गए।
एक अनसुनी सी धुन छेड़ी उस मुसाफ़िर ने,
एक अलबेला सा गीत सुना मैंने राहों में।
ना खबर की जाना है किधर,
उस पर ये दिल होता बे सब्र,
आंखों को मीचे हम आगे बढ़ रहे है,
कोई करे इत्तिला हम किस ओर जा रहे है।
एक अनसुनी सी धुन छेड़ी उस मुसाफ़िर ने,
एक अलबेला सा गीत सुना मैंने राहों में।
ना साथी कोई मेरे साथ,
ना किसी हम राही ने थामा मेरा हाथ,
सफ़र तन्हा अब कैसे बीतेगा,
ना जाने रैना जब बीते कब सवेरा आयेगा।
एक अनसुनी सी धुन छेड़ी उस मुसाफ़िर ने,
एक अलबेला सा गीत सुना मैंने राहों में।
फिज़ा महकी है एक अलग एहसास से,
मैं हुई रूबरू आज अपने आप से,
मंज़िल दूर है सफ़र काफ़ी है बाकी,
एक कहानी पीछे छूटी अभी तो कई किस्से है लिखना बाकी।
