चांद और चांदनी
चांद और चांदनी
चंदा मामा तेरी कथा सुनी थी
गित तेरी मैने भी गाई थी
आज न जाने कविता रचने का
मन में अंदरुनी ख्वाहिश जग उठी।
देखी तेरी वह एक परछाई
हर वह पुनम रात खूब भाई
सवेरा हुआ तो फिर छुप गई
ढुंढने पर भी ना मिल पाई।
चांद कहूंं या चांदनी सही
फ़िक्र बस तुझे खोने की रही
सुंदर गगन का तु उज्जवल प्रतीक
कम पड़ेगा तुझे ये मरी तारीफ।
दूर है तू पर असंभव नहीं
अंधेरी रात की किरण तू ही
आधी-आधी बंंट के पूरी बनती
कभी चांद फिर कभी चांदनी कहलाती।