पथरीली धरा पर
पथरीली धरा पर
मैं नदी हूँ
मैं निरन्तर चलती हूँ।
प्रस्तरों से,कंटको से,
पथरीली धरा पर,
बहती हूँ।
मैं नदी हूँ
मेरे अनेकानेक नाम हैं।
किसी ने गंगा कहा,
किसी ने यमुना,
किसी ने ब्रह्मपुत्र,
तो किसी ने सिंधु।
अन्तर्निहित समेटे,
कई भाव में
प्रवाहित होती हूँ।
मैं नदी हूँ
निरन्तर कर्मपथ पर,
चलती हूँ।
अपने प्रियतम से,
मिलने हेतु अनेक,
यातनाएं सहती हूँ।
मैं नदी हूँ
दो तटों के मध्य,
माध्यम हूँ मिलने का,
कृषकों की जीवनदायिनी हूँ।
उनकी रणभूमि की,
प्यास बुझाती हूँ।
मैं नदी हूँ
मैं शांत कलकल
गतिमान हूँ,
परन्तु,
उग्र रूप में आऊँ तो,
प्रलय भी मचाती हूँ।
मैं नदी हूँ
अपने जलधि से,
मिलकर,
अपना अस्तित्व मिटाकर,
सम्पूर्णता प्राप्त करती हूँ।
