पर्यावरण एवं हमारा समाज
पर्यावरण एवं हमारा समाज


छायी अंधियारी ज्यों दिन में ही रात है
धुंधली तस्वीर और लाल हुयी आंख है
तेज चलती स्वांसा और गले मे खरास है
दिल धड़के जोर जोर मन भी उदास है
कानन उजाड़ दिए मिलती नही घास है
जगह जगह मिट्टी में प्लास्टिक का वास है
कारखानों के धुंवा से भरता आकाश है
कतारों में गाड़ियों की संख्या बेहिसाब है
शहर भर की गंदगी का नदियों में बास है
पोखर, तालाब, कूप सूखत सब जात है
करनी का भोग अब तो सामने दिखात है
प्रदूषण का 'राज' आज करत विनाश है।