परवाज लेता मन
परवाज लेता मन
परवाज लेता मन
लहरों की तरह उठता
है बार-बार
ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ
लाता है दरमियां
करके बेखबर खुद को
ज़रा सा नासमझ बन
जाता है कभी कभार
ख्वाबों को बुनते-बुनते
हकीक़त से मिल
जाता है हर बार
कागजी नहीं उसकी
बातें कभी
भीड़ में भी खुद से
रूबरू
रहता है हर कहीं
बनकर सहारा
खुद का ही
किनारे तक पहुंच
जाता है
गुमसुम नहीं दिखा कभी
खयालों में भी अनबन
हुई नहीं कभी
खुद की ही आदतों से
सुकून की छांव में
सीक रहा है
परवाज लेता मन
लहरों की तरह
बार-बार उठ रहा है