पृथ्वी
पृथ्वी
(आकाशवाणी)
एक ध्वनि उठी, कुछ बोल गई,
आवाज़ थी कुछ पहचानी सी। ममता भी थी और धैर्य भी था,
पर कंठ रुद्ध, कुछ प्यासी सी।
कुछ दुःखी भी थी, कुछ चिंतित भी, मेरे भविष्य को लेकर,
परिचय दिया, फिर प्रश्न किया-
“अपराध हुआ क्या मुझसे कुछ अपना सर्वस्व तुझे देकर ?”
( आकाशवाणी का परिचय एवं विवशता )
हूँ मैं पृथ्वी, इस जग की माँ, तू पुत्र है मेरा, प्यारे।
मैंने तुझे पाला, प्यार किया, अनमोल रतन सब वारे।
मेरे अंचल में तू खेला, मेरी नदियों का नीर पिया।
इस अमृत को दूषित कर तूने अपने भाग्य को चीर दिया।।
वृक्ष जो पवन पताका थे, मिटटी को जकड़े खड़े हुए।
मानसून रोक वर्षा कराते, मृदा स्खलन से अड़े हुए।
जिनसे थे बने घने जंगल, जो हर पल करते जग मंगल।
उन्हें कटा दिया तूने दानव, क्या तू ही है मेरा जाया मानव ?
उपकारों को मेरे भूल नहीं, ये अनगिनत हैं जितना समुद्र में जल नहीं।
बरबस हो सन्मुख आई तेरे, स्वमुख स्वयं बखान रही।
क्यूंकि असमय बूढ़ी हो गई अब रहा भुजाओं में बल नहीं।
मैं सत्य कहूं, स्पष्ट समझ, सच्चाई यही, कोई छल नहीं।।
अन्यथा, इस असंतुलन का परिणाम तुझे चुकाना होगा।
तत्काल संभल, वरना अंततः पछताना होगा।।
(ध्वनि लुप्त होने पर स्वयं से वार्ता )
जब मात् कंठ की ध्वनि सुनी, तब मन मेरा अकुलाया।
एक दर्द उठा सीने में जिसने बड़ा रुलाया।
यह प्रश्न उठा “अपराध हुआ क्या मुझसे कुछ अपना सर्वस्व तुझे देकर ?”
यह प्रश्न उठा, उत्तर न मिला, खुद सोचा तब यह पाया।
"क्या मेरे कर्मों का फल ही मुझे इस मोड़ पर ले आया ?"
(स्वीकारोक्ति)
हाँ ! मेरे कर्मो का फल ही मुझे, इस मोड़ पर ले आया।
(स्वयं से संकल्प) पर प्यारी माँ तू धैर्य न खो, तेरा आँचल फिर लहरायेगा।
सम्मिश्रित प्रयास सफल होंगे वह दिवस शीघ्र ही आयेगा।।
हम वृक्ष पुनः रोपित कर जंगल में मंगल लायेंगे।
खेतों में रसायनों की जगह खादों से उपज बढ़ायेंगे।
जल की बूँद, संरक्षित कर, जल भंडार बढ़ायेंगे।।
और कारखानों से निकला गन्दा पानी, सूखे गड्ढ़ों ने दफनायेंगे।
सम्मिश्रित प्रयास सफल होंगे, वह दिवस शीघ्र ही आएगा।
“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी” पुनः विचार जायेगा।।
