पृथ्वी(कुदरत)
पृथ्वी(कुदरत)
सूरज की किरण को पकड़ रहा था
हवाओ का रुख मोड़ रहा था।
प्रक्रति का समय चक्र बदल रहा था
उस गंगा जल को भी नही छोड़ रहा था।
नहाकर अपने स्वार्थ में
न जाने इंसान इस कुदरत संग खेल रहा था।
देखो अब उसी कुदरत की बारी है
जहरीली हो रही हवा सारी है।
अब हाथ जोड़ उसी कुदरत को
तुम बार बार नमन करो।
देगी जिस दिन यही कुदरत
उपहार में जिंदगी तुम्हें
ठहरकर अपने आशियानों में
उस दिन तक का इंतजार करो।
