प्रण-भंग।
प्रण-भंग।
चिंतन ले गुरु का हर दम, सतसंगत यही कहलाती है।
यही मार्ग सुगम और फलदायक, जो इंसान को इंसान बनाती है।।
सौंप दे खुद को गुरु चरणों में, जो तेरी खुदी को मिटाते हैं।
गुरू की दया का वह अधिकारी, मोक्ष का भागी बनाते हैं।।
भिक्षुक बन जो उनसे मिलता, शरणागत की लाज बचाते हैं ।
बड़ों की वहाँ कोई पूछ नहीं है, व्यर्थ ही समय गँवाते हैं।।
खौफ खुदा से जो है खाते, मोहब्बत उनकी सदा बरसती है।
बेखौफ आदमी गुमराह बन फिरता, बेअदबी उनको न भाती है।।
गुरु की याद जो मुरीद हैं करते, रहमत उनकी वह पाते हैं।
याद का उल्टा दया है होता, प्रत्यक्ष रूप से दिखलाते हैं।।
तन- मन से जो अदब हैं करते, पारमार्थिक सुख वो लुटाते हैं।
सुख- संपदा की कोई कमी नहीं रहती, सुगम साधना बतलाते हैं।।
दृष्टा- भाव से जो इसको हैं करते, मेरा -पन का भाव मिटाते हैं।
"नीरज" तू "प्रण- भंग" मत करना, यही तुझको समझाते हैं।। मतलब
