प्रकृति
प्रकृति
यूं अचानक
थम-सी गई
यह गतिशील दुनिया
अपने अक्ष पर।
ठहर गई सारी जिंदगियां
निर्जीव हो गई
सब चीजें वीरान पड़ गई।
ज़िंदगी की इस आपा-धापी में
सब छूट रहे थे पीछे
एक-दूसरे से आगे
निकल जाने की महत्वाकांक्षा।
प्रकृति से न हार मानने की जिद
जिद प्रकृति पर विजय प्राप्त करने की।
अपनी जिद में सब भूल गए थे
प्रकृति के सारे नियम, सारे कायदे
थोप रहे थे प्रकृति पर
अपने विध्वंसकारी अमानवीय कृत्यों को।
कर रहे थे अपनी मनमर्जियां
प्रकृति के विधान को बदलने की
एकाधिकार में लेना चाहते थे
प्रकृति प्रदत्त संपूर्ण सृष्टि को
क्या जल, क्या वन, क्या पर्यावरण
जो था जीवनदायिनी, सुखकरणी
छीन-बीन करने पर आमदा थे।
हुआ अत्याचार अविरल
सृष्टि निर्माता पर
अब तोड़ प्रकृति
अपने सहिष्णुता के बंधन को
दिखा रहा है अपना रौद्र-रूप
उमड़ा प्रकृति का क्रोध।
अब,
बनना ही होगा मानव हमें
और निकाल फेंकना होगा
दूर मन के सारे मैल
अगर बचाना है अपने अस्तित्वों को
ले सबक इन आपदाओं से
संभल जाना होगा
इन विध्वंसकारी अमानवीय कृत्यों से।
