अलहदा-सी ये बेटियां
अलहदा-सी ये बेटियां
घर के आंगन में खेलती-कूदती मस्त-मग्न
अलहदा-सी ये बेटियां कितनी प्यारी दिखती
घर के सारे बोझों को अपने सिर पर उठा
ब्याह से पहले ही मां की भूमिका बन जाती हैं ।
मां और बापू को मुक्त कर घर के सारे कार्यों से
खुद निपटाती चूल्हा-चौकी,
बरतन-बासन, झाड़ू-पोछा ।
वो खेत-खलिहान भी जाती है
और भेजती है सरकारी स्कूल नित
अपने छोटे-छोटे भाई-बहनों को
'अ ' से 'अधिकार ' और
'आ' से 'आजादी ' पढ़ने
ताकि मांग सके उसके भाई-बहनें
अपने 'अधिकार' और
छीन सके अपनी 'आजादी '
सत्तासीन हुक्मरानों से ।
वो कभी स्कूल नहीं गयी
पर जानती है...
अपनी सभ्यता-संस्कृति को
और सदा बनाये रखती है गरिमा
अपने समाज, अपने मां-बापू के।
ये बेटियां सीख गयी है
संघर्षों को अपना हथियार बनाना
डटकर परिस्थितियों से सामना करना
तोड़कर रूढ़िवादी परंपरागत कुरीतियों को
आगे बढ़ इतिहास रचना।
अब,
बकायदा अलहदा-सी ये बेटियां
सीख गयी है समाज से विद्रोह करना
अपनी हक़, अपनी आजादी के लिए ।
अलख जगाती, आवाज़ उठाती
अलहदा-सी ये बेटियां कितनी प्यारी दिखती।
