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Kalyani Nanda

Abstract

4.8  

Kalyani Nanda

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प्रकृति तुम अनुपम हो

प्रकृति तुम अनुपम हो

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प्रकृति तुम नित नित नव नव हो,

नित नये रूप से तुम अनुपम हो,

घने जंगल, हरे भरे खेतों की,

हरियाली से तुम सुसज्जित हो,

प्रकृति तुम सदा अतुलनीय हो,

प्रकृति तुम अनुपम हो।


षट् ऋतुओं के माधुर्य से तुम,

मधुर मधुर हो, तुम सुशोभित हो,

श्रावण के वारिश से तुम प्लावित हो,

शीत लहर से तुम प्रकंपित हो,

वसंत के नव राग से, बहार के नव रूप से,

तुम भूषित हो, सुशोभित हो,

प्रकृति तुम अनुपम हो।


नीले नीले अम्बर के छाँव में

तुम सौन्दर्य मयी हो

विहगंम के मधुर

कूजन से तुम मुखरित हो,

छल छल बहती नदियाँ,

झरनों के गीत की झंकार हो,


तुम एक ताल हो,

लय हो, छंद हो, एक मधुर सूर हो,

प्रकृति तुम अवर्णनीय हो,छन्दमयी हो,

प्रकृति तुम अनुपम हो ।

घने जंगलों से घिर कर,

पेडों के साये में पल कर,

पर्वतों के तुंग शिखर से सज्जित हो,

फूलों के साथ डोल कर,


सागर धोए चरण तुम्हारे,

लहरों के स्पर्श से,

एक नव माधुरी से,

नये उन्माद से उन्मादित हो,


वसन्त के रंग से सुसज्जित हो,रंजित हो,

प्रकृति तुम अतुलनीय हो, शोभनीय हो,

प्रकृति तुम अनुपम हो।


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