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Arti pandey Gyan Pragya

Tragedy

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Arti pandey Gyan Pragya

Tragedy

प्रकृति का संदेश

प्रकृति का संदेश

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दे रही प्रकृति बारंबार संदेश,

हे मानव तू संभल जा तू चेत।

तू बड़ा बन रहा बड़प्पन से तू हीन है,

बाकी सब तू भूल गया अपने में तू लीन है।


भूमंडल पर तुझ को मैंने देवदूत बना भेजा,

तू मेरी अद्भुत रचना है मेरे हृदय ने यह सोचा।


तूने जाकर सर्वप्रथम मेरा ही संहार किया,

जंगल काटे नदियां बांधी कुविचारों का विस्तार किया।


नित्य धूम्र के बहते कण से मेरा ही दम घुटता है,

हुक हृदय में उठती मेरे जब मानव मुझ को चलता है।


कब तक यूं ही चुप रहकर अंतहीन निराशा देखूं मैं,

स्वयं संभल जाओगे तुम या आकर तुम को चेतू मैं।


समुद्र में उठी लहरों को तुम शांत होकर बहने दो,

नहीं तो शांत सी लहरों में मैं रौद्र रुप दिखलाऊंगी

हो जाओगे उसमें तुम मैं महाप्रलय कर जाऊंगी।


तुम को मैंने भोजन हेतु प्रकृति का प्रसाद दिया,

मेरे रूप धरा के सहचर जीवों पर तुमने प्रहार किया।


मैं विकास हूं मैं विनाश हूं तुमने कैसे मान लिया,

कृतिम जीवन में कृतिम जीव दे सब कुछ स्वयं

को जान लिया।


अब भी बुद्धि नहीं आती तो तुम्हें सिखाने आऊंगी,

सब कुछ पहले जैसा होगा तुम्हें सत्य दिखलाऊंगा।


समझो तुम प्रकृति की भाषा देती है तुम को संदेश,

मानव जीव एक हो जाओ आपस में भर दो अब स्नेह



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