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Arti pandey Gyan Pragya

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Arti pandey Gyan Pragya

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ओ कविता

ओ कविता

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अरी कविता क्या तू मेरी बात सुनेगी,

तू मैं है या मैं तू है मेरी बात समझेगी जिंदगी।


जिंदगी तेरी सच्ची सहेली है या मैं हूं ,

मुझे लगता है यह सही है मैं केवल किरदार हूं।


तुम दोनों ने मिलकर चुनर तो उढ़ा दी ,

चुपके से बांध दी गठरी भारी गठबंधन वाली।


उसी बोझ से लदभद चल दी,

अजनबी के साथ जिंदगी तेरे ही इक नये सफर पर।


अनजान है घर अनजान है आंगन का हर कोना ,

अरे मेरे पाँव की आहट को पहचान लो तूझे मेरा

ही होना।


अपने पर इतना विश्वास था जीत लूंगी सबका मन ,

लग गई उसी दिन से कर्मठता पूर्ण पथ पर।


जो अपने साथ गठरी लाई उसका मोल बड़ा

कम निकला,

जो पिता ने नहीं दिया उसी से मेरा वजूद था।


मेरे आंचल के कोने में माँ ने प्यार ,संस्कार ,

झुकना कूट-कूट कर भरी दिया था,

लेकिन उस लोहे के बक्से में सामान बड़ा कम

दिया था।


सुन री कविता, आंचल का कोना कहां किसी

को दिखता है,

बाबुल ने यह कहाँ समझा उसकी बेटी का दिल

कितनी बार दुखता है।


सुन रही जिंदगी, जौहरी तो चालबाज हो सकता है

हीरे में तो अपना प्रकाश है,

लेकिन हाय रे, डिबिया अगर पुरानी है तो हीरे की

क्या औकात है ।


बिना कुछ लिए आई इसकी छवि उतार नहीं पाई,

मैया तेरे आंचल का कोना कब भारी होगा समझ

नहीं पाई।


जिंदगी में सबको अपना बनाती रही मुझे किसी ने

गले लगाया नहीं,

मैया री, क्या इतनी भारी होती है बेटी क्यों नहीं

रख लिया अपने ही आंगन में कहीं।


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