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Arti pandey Gyan Pragya

Abstract

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Arti pandey Gyan Pragya

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आज और कल

आज और कल

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हमने देखे हैं खुले गगन देखी उजियारी चाँदनी ,

बहुत दूर झिलमिलाती लगती फिर भी अपनी सी|


मंद हवा के झोंकों में नीत नवीन डरे झूले,

क्या खोया है क्या पाएंगे झूले के झोंकों में भूले|


बरखा की बूंदों में छप छप पैरों को खूब भिगोया था,

कागज की नाव बनाकर के बचपन को खूब घुमाया था|


मित्रों की सभा के राजा थे सबके मन पर करते थे राज,

मित्र हमारे भोले थे कुटिल नहीं हैं जैसे आज|


निद्रा चुपके से आकर के अपने आंचल में लेती घेर,

बेसुध निश्चल भोला बचपन सपनों में फिर करता प्रवेश|


कंधे रहते भार मुक्त नित सीख नवीन मिल जाती थी,

आदर अनुशासन प्रेम दया की पग पग सरिता लहराती थी|


चलो अभी समय की बात करें अपनों की परिभाषा बदल गई,

आदर् सम्मान दया प्रेम की भागीरथी भी सूख गई|


बच्चों का वह भोलापन चतुराई में बदल गया,

सब रिश्तो का अपनापन गया व्यापार में सब कुछ बदल गया|


जो भावुक और संवेदनशील उनको कमजोर की संज्ञा दी,

जिसने इस सृष्टि की रचना की वह भी स्तब्ध सा खड़ा वही



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