प्रकृति हितार्थ
प्रकृति हितार्थ
समझो क्यों हुआ प्रकृति का सृजन
कि पोषित हो सके मानव जीवन
हज़ारों रंग धरा पर सर्वत्र बिखरे
कि प्रकृति नित नए रूप में निखरे
प्रकृति ने दिए हमें कितने उपहार
हम खुद ही बन बैठे एक विकार
स्वार्थ और चंद फायदों की खातिर
मार कुल्हाड़ी खुद बैठे बन काफिर
उजाड़ने की जो हमें धुन लग गई
तभी तो ये प्रकृति देते थक गई
भूल बैठे वो बसंत की अंगड़ाई
कहाँ सावन की बरसती तरुणाई
ये अद्भुत पर्वत,सागर,नील-गगन
रंग-बिरंगे पुष्प और हरियाते उपवन
भोर में स्वछंद पक्षिओं कि कूजन
ये झंकृत झरनों कि झनझन
मनोरम प्रकृति देती हसीं मुस्कान
हम मानुष न रख पाए उसका ध्यान
बस अपने हितार्थ प्रदूषित करते
हम स्वयं ही स्वयं को शोषित करते
फिर जब प्रकृति का कोप झेलते
बन याचक प्रार्थनाएं करते
करलो सभी मिलकर आत्ममंथन
इस प्रकृति बिन अधूरा है जीवन
तृष्णा की तृप्ति मात्र के लिए
ना ख़त्म करो हवा,धूप,जल और अन्न।
