प्रियतमा
प्रियतमा
उसके विस्तार में मेरा अंश मिल गया,
प्रेम में उससे विरह का दंश मिल गया
न रूठ पाऊं उससे न उससे मिलना है,
आत्मा का वो प्रिय अंश, वो प्रियतमा है
विस्तार विस्तृत है उसका गर अनंत तक,
उसको संजो के रखना है, मुझे अंत तक
वो ही मेरी हर बात है, वही दिन-रात है,
मेरी त्रुटि का कारण है वो, वो ही क्षमा है
वो मुझमे निहित है पर उसे स्मरण करना है,
वो अलग नहीं मुझसे उसका वरण करना है
यादें उसकी मानस-पटल पर हैं अंकित मेरे,
अनवरत यादों का सफर कब कहाँ थमा है ?
जीवन-दीप बुझने से पहले अंतिम दर्श मिले,
वो छुए उंचाईयों को मुझे भले ही अर्श मिले
पर इंतज़ार मेरा जाएगा अनंत तक क्यूंकि वो,
अनश्वर है, अंतिम है, अविनाशी है, अजन्मा है।