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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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प्रेमवत क्रियाशील ही तो हैं

प्रेमवत क्रियाशील ही तो हैं

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जब कोई क्रियाशलता निष्क्रिय हो जाती है

कोई सम्भावना शेष नही रह जाती उसके अंदर

और हम प्रेमपूर्वक उसे सदा के लिये भुला देने की

कोई क्रिया करते हैं तो

अक्सर कोई नाम होता है


उस क्रिया का

तो हम श्राद्ध ही तो कर रहे हैं

प्रेम में डूबे हुये

अपनी ही खूबसूरत क्रियाओं का

और यकीनन हमारी इस क्रिया से

कुछ प्राप्त होता है हमें

संतुष्टि सा कुछ उत्तपन्न भी होता है


जैसे एक जीवन में दूसरा जीवन

जैसे पुनर्जन्म

इसी एक जीवन में

जैसे कोई चाहत

सर्वथा अप्रसांगिक हो चले परिवेश में,

अगर हमारा चलता हुआ श्राद्ध

हमारे लिये बोझिल हो जाय


जैसे कि हमारी ब्यवस्था हो गयी है

तो हमे अपनी संतुष्टि के लिये

जो हमारी अपनी श्राद्ध की क्रिया में है को

एक नया रूप देना होगा


अथवा अपनी परम्परा को ठीक से समझना होगा

जो प्रेमवत क्रियाशील होकर

अपने अजीज को भुला देने की रहती आयी है

और यकीनन यहाँ कुछ नया सम्भव है।


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