प्रेमी
प्रेमी
तुम कहते हो, मैं प्रेमी हूँ ,
प्रेम में समर्पित हो जाऊंगा
देनी पड़ी यदि जान तो,
वह भी मैं दे जाऊंगा ।
क्या तुम देश-प्रेमी हो !
या फिर हो मानवता के प्रेमी ।
क्या तुम विश्व प्रेमी हो !
या फिर हो ईश्वर के प्रेमी ।
छोड़ मन की भटकन को,
दिल से पूछो बात जरा ।
क्या तुम सर्वव्यापी प्रेमी हो,
या फिर हो प्रेमी एकला ।
प्रेमी नहीं स्वार्थी हो तुम,
मतलब से फिरते हो सदा ।
प्रेमी होते यदि सचमुच तो,
न होते दंगे फिर यहाँ ।
अरे !प्रेमी तो बस वो थे,
जो मिट गए देश की आन पे ।
गुलामी से सबको मुक्त कराने,
कर गए थे न्योछावर प्राण वे ।
एकल प्रेमी होने का,
है तुमको अभिमान बड़ा ।
बड़ी शान से कहते फिरते हो,
मैं हूँ प्रेमी अडिग खड़ा ।
वो प्रेमी ही क्या जिसमें ,
वसुधैव-कुटुम्बकम का न भाव भरा ।
सीख सके तो सीख प्रकृति से,
परकाज हित जो जीये सदा ।
क्या अब भी लगता है तुमको,
तुम सचमुच के प्रेमी हो !
प्रेमी नहीं लगते तुम मुझको,
इस जग के तुम बैरी हो ।
