प्रेम
प्रेम
जब दिन ढ़ल जाता है,
तू आ जाती है,
चुपके से मेरे खयलों में।
जब अन्धेरा छा जाता है,
तू आकर दीप जलाती है,
मेरे सपनों आँगन में।
जब बोझल होती साँसें
भर आती हैं मेरी आँखें
तब तू ही चलकर आती,
आ ,बस जाती है नजरों में।
कभी दिल मिल नहीं पाते
कभी जाति बन्धन आड़े आते हैं
ये कैसी उलझन
जग में बैरी अपना मन,
सहते सितम दो हम-दम
मोहब्बत के शहर में।
दिल जाने घाव हैं गहरे
हो गए दफन सपने सुनहरे
ये हमारे सपने ही तो
आज दुश्मन बने हैं,
हम ना होंगे जुदा
हर बार मिलेंगे,
फिर से नई सहर में।