प्रेम
प्रेम
नर बंधा है शरीर के सीमाओं से।
वह संगीत नहीं बन सकता,
ना वर्षा का जल बन सकता है,
ना खेतों में लहलहाती फसल,
ना ही टूटे स्वप्नों की चटकन,
और नदियों का वेग तो कभी नहीं
पर्वतों की श्रृंखला भी नहीं।
पर प्रेम कितना संभव कर देता है,
मनुष्य का संगीत जैसा सौम्य हो जाना ।
प्रेम से संभव है,
उसमें वर्षा की नवीनता आ जाना ।
वह फसलों सा सजीव दिख सकता है,
बहा सकता है टूटे स्वप्नों की मलीनता,
नदियों के वेग में।
वह पर्वत सा ऊंचा भी उठ सकता है।
वह समझ सकता है,
प्रेम व्यावहारिकता नहीं, परिस्थिति है।

