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Jitendra Vijayshri Pandey

Abstract

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Jitendra Vijayshri Pandey

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प्रदूषण युक्त इंसान

प्रदूषण युक्त इंसान

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उठो इंसान अब ज़मीर देखो,

शीशा लाया हूँ मुँह देख लो।

बीती रात कमल दल फूले,

उसके ऊपर धूल सहित कीचड़ झूले।


चिड़िया तड़प रही रस्तों पे,

बहने लगी दिखावटी मुस्कान अति सुंदर।

नभ में हंसती कालिमा छाई,

देख धरा इसे ख़ूब रोई।


प्रतिदिन प्रदूषण की बढ़ती काया,

चारों ओर इसका ही प्रकोप छाया।

नयी-नयी बीमारियां आई,

रोग खिले गंदगी मुस्काई।


इतना निष्ठुर मत बन जाओ,

मेरे प्यारे अब इंसान बन जाओ।


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