परछाई
परछाई
अनगिनत राज़ छुपाए सीने में
समय का प्रबाह चलता है ख़ामोशी से
कभी कभी तो लगता है
में में नहीं
हूबहू मेरे जैसी किसी की परछाई हुं
मुझे गुज़रे हुए
सैकड़ों साल हो चुके
मेरी लाश अभी भी दफ़न है
बर्फिली चट्टानों के नीचे
तब से ना जाने कितने
मौत मरी हुं मैं
कहां कहां दफना दी गई हुं मैं
एक एक पन्ने पर
हर इक जीनंदेगी की काहानी है
कौन है वो लेखक ???
कभी रुबरु ना हो पाई उनसे
ना दोबारा छूं पाई
उन पन्नों को...
कोई तो साक्षी होगा और राज़दार
मेरे हर किरदार का
शायेद मेरी परछाई ही है
जो रखती है
मेरे सारे हिसाब किताब
साथ साथ चलते तो हैं
पर दो अजनबी जैसे
सारा कसूर है मेरा
कौन सी धुन में गुम थी मैं ??
पेहचान ही नहीं पायी
उस से अंजान रही
सचमुच जो खिदमतगार था मेरा
उसने कइ बार आवाज़ दी होगी
ख़ूब तड़पा भी होगा
मेरी नादानियां उसे बना दी
सिर्फ और सिर्फ एक वजह
मेरा हर अंजाम का......।
