परछाई
परछाई
एक दिन सत्यभामा श्री कृष्ण से बोली
मन में पड़ी कुछ गांठें , उसने खोली
"हे श्याम , आप तो भक्त वत्सल हो
दीन दुखियों को भी गले लगाते हो
मैं तो आपकी परछाई हूं, साथ चलती हूं
फिर भी मुझे क्यों नहीं अपनाते हो ?
श्रीकृष्ण बोले "तुम परछाई नहीं हो प्रिये
परछाई तो कभी कभी साथ छोड़ देती है
कभी लंबी तो कभी छोटी हो जाती है
कभी आगे तो कभी पीछे हो जाती है
कभी सीधी तो कभी तिरछी हो जाती है
तुम तो दिल बनकर मेरे दिल में धड़कती हो
मेरी सांसों में खुशबू बनकर महकती हो
सतरंगी सपने बनकर आंखों में बसती हो
बांसुरी बनकर मेरे अधरों पे सजती हो
परछाई तो बहुत तुच्छ चीज है
तुम मेरी परछाई नहीं हो प्रिये
तुम तो मेरे प्राण हो , मेरी आत्मा हो
तुम्हारे बिना मैं अधूरा सा हूं
दिल छोटा ना करो, मेरी बात मानो
परछाइयों को छोड़ो, खुद को पहचानो"
प्रियतम की प्रेम भरी वाणी
सत्यभामा को आनंदित कर गईं
इतना मान पाकर वह हर्ष से भर गई ।