"पिता"
"पिता"
मेरा अभिमान और मेरा गौरव, मेरे पिता
वो मेरे आदर्श, मेरी जिंदगी के रचयिता
उनके बिना जीना सोच नहीं सकता हूं
वो बरगद, में उनके नीचे महफ़ूज परिंदा
हंसना, न किसी का फटा बनियान देख,
यह वो मनु है, जिसे कहती दुनिया, पिता
जो अपनी खुशियों का घोंटता है, गला
औलाद के लिये, इच्छाएं मारता जिंदा
वो त्यागी, फौलादी व्यक्ति है, एक पिता
अपने सपनों को पुत्र में देखता है, पिता
खुद रूखा-सूखा खाता है, एक पिता
पुत्र को खिलाता है, काजू, बादाम, पिता
खुद चाहे पहनता है, फटा हुआ जूता
पर पुत्र को बनाकर रखता है, गोविंदा
खुद चाहे पाता है, हर वक्त बड़ी, दुविधा
पुत्र को देता, अच्छी से अच्छी सुविधा
धरती का जिंदा खुदा होता है, पिता
जिसके जिंदा होते है, साखी पिता
वो दुनिया का राजा होता है, चुनिंदा
जिस औलाद के साथ होता है, पिता
मुश्किलें भी होती है, वहां पर शर्मिंदा
पर आजकल कुछ ऐसी हवा चली
वृद्धाश्रम में भेजे जा रहे, माता-पिता
वहां बहुत रोती पारिवारिक, कविता
पर जो जैसा करता है, वैसा ही पाता
उनके शव को नहीं मिलती है, चिता
जो माता-पिता को देता, दुःख, दुविधा
उनके जीवन में तम देता है, सविता
बनते श्रवण कुमार, रब देता, उन्हें तार
उनकी बदल जाती है, एकदम फ़िजा
जो सदा सेवा करता है, माता-पिता
पतझड़ में भी बनता, वो सावन हरिता।