पिता!
पिता!
पिता! उस बीज का स्त्रोत
जो पृथ्वी (माँ) के संसर्ग से
आधार रखते हैं कोंपल का।
पिता! वो दरख्त!
जो अपने जड़ो से लेकर
अपने शाख के अंतिम पत्तियों से
करते हैं उपवन हरा।
पिता! वह आश्रय!
जो तपते है स्वयं और
सुरक्षित रखते है आश्रितो को।
पिता! जो ढूंढते है
स्वयं को! संस्कार को
अपने संतान में।
पिता! मिश्रित भाव
जो दिखाते बाह्य से कठोरता
और अंदर है ममता का सागर।
पिता! प्रसन्न है जब!
पहचान हो उनकी
अपने संतान से।
पिता! एक ऐसा विषय
शब्द भी नहीं बाँध पाते
जिन्हें अपने बंधन में।
पिता! जो जीता है!
मृत्यु के पश्चात भी
तब तक जब तक
उसके कोंपल वृक्ष
बन है इस संसार में।