पिता--दो शब्द
पिता--दो शब्द
आज में
तुम्हारी उंगलियों को थाम कर
चलना सिखा रहा हूं।
खुशियों और गम को जिंदगी मै
जीना सिखा रहा हूं।
खुद घोड़ा बन कर तुम्हें दौड़ना सिखा रहा हूं।
अपनी अनुभवी नजरों से तुम्हें
सारी दुनिया दिखा रहा हूं।
हर परेशानी और दर्द में छतरी बन कर
चल रहा हूं साथ तेरे।
हर पल हर क्षण अहसान नहीं
पिता होने का फर्ज निभा रहा हूं।
बस एक
आशा और विश्वास की डोर थामे
तेरा हर कर्ज चुका रहा हूँ।।
जब उम्र की
पड़ाव पर डगमाने लगेंगे पाव मेरे।
मटमैले चश्मे से दिखने लगेंगै अक्षर टेढे।मेढे।
कंपकंपाते हाथों में कुछ
थामने की जब शक्ति न होगी।।
दुनिया के दीन धर्म से अनुरक्ति न होगी।
तब
शायद तुम भी मुझे
इसी तरह थाम कर चलोगे।
अपना कांधे से मेरा सहारा बनोगे।
अपनी आंखों से देखने दोगे
ये दुनिया सारी।
मेरी तरह
शायद तुम भी कहोगे
ये जिन्दगी बाबा आज भी
और कल भी रहेगी नाम तुम्हारे
देखो कल भी थी और आज भी है
कितनी प्यारी।