फूल और कांटे
फूल और कांटे
मेरे बाग में कुछ कांटे उग आये हैं
जैसी कि उनकी फितरत है, वे स्वतः उगते हैं
कांटों को कौन उगाता है ?
हो सकता है कि कोई शैतान उन्हें बिखरा गया हो
पर वह शैतान बाग का हितैषी तो नहीं हो सकता है
कुछ दो चार लोगों का साथ पाकर
कांटे मदान्ध होकर नंगा नाच कर रहे हैं
सब कुछ तार तार करने पर तुले हुए हैं
बरसों की मेहनत से बने इस उपवन को
जो अब अपनी महक बिखेरने लगा है
जन जन को महका कर आनंदित करने लगा है
अपने तीखे, नुकीले दांतों के द्वारा
इस लहलहाते, मुस्कुराते उद्यान को
श्मशान में तबदील करने हेतु अड़े हुए हैं
सब कुछ तहस नहस करने के लिए खड़े हुए हैं
उनके इस कुकृत्य से बेचारे फूल परेशान हो रहे हैं
मन ही मन घुट रहे हैं, खून के आंसू रो रहे हैं
कांटों की चुभन से आहत हैं सभी कलियां भी
मगर कुछ बोलने का साहस नहीं कर रहे हैं
पर कांटे फिर भी ताल ठोक रहे हैं
कांटों की प्रकृति है दूसरों को दुख देना
सारी उमर यही करते आये हैं वे
खुद तो किसी लायक हैं नहीं
औरों को लहूलुहान करते आये हैं वे
कलियां मौन साधे बैठी हुई हैं
वे भी कांटों की दुष्टता से परिचित हैं
पर उन्हें अपनी इज्जत बहुत प्यारी है
कांटों का क्या भरोसा ?
कब किसको जलील कर दें
कब किसका सीना गालियों से छलनी कर दें
वे मन ही मन फूलों के साथ हैं
मगर कांटों के आतंक से आतंकित हैं वे
इसलिए खुलकर कुछ बोल नहीं सकतीं
मगर उन्होंने मन ही मन ठान लिया है कि
जब वक्त आयेगा तो वे भी कांटों को बता देंगी
कि तुम कल भी कांटे थे आज भी कांटे हो
और कल भी कांटे ही रहोगे
क्योंकि कांटे अपना धर्म कभी नहीं छोड़ते हैं।
श्री हरि
