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Sangeeta Aggarwal

Abstract

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Sangeeta Aggarwal

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फितूर

फितूर

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फितूर हर उम्र मे होता है जुदा जुदा

कभी खिलोने कभी प्रेम कभी खुदा 


बचपन मे जो वो खिलौनो का पिटारा था

मानो वो दुनिया का अनमोल खजाना था 

वो टूटे खिलौने भी मानो कितने अच्छे थे

क्योकि वो ऐसी उम्र थी जब सब बच्चे थे।

कितना मासूम कितना वो प्यारा था 

कहते है जिसे बचपन वो बहुत न्यारा था।


बचपन बीता आई जवानी हुए सब सयाने

सबके लिए बदल गये खजाने के मायने

अब प्रेम ही सब कुछ मानो नजर आता था

माशूक/ माशूका का साथ हर पल भाता था।

दम नही था भले एक गुलाब खरीदने का 

पर चांद तारे लाने की बातो मे मजा आता था।


वक्त बीता और प्रेम के मायने ही बदल गये

बाल के साथ साथ दाँत भी कुछ कुछ झड़ गये

अब तसव्वुर मे बस खुदा ही खुदा नज़र आता है

कैसे संवारे अपना परलोक यही ख्याल आता है।

इंसान सारी जिंदगी लोभ लालच मे रमा रहता है

और अंत मे बस एक राख का ढेर बच जाता है।


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