फिर लौटी हो बर्बाद करने
फिर लौटी हो बर्बाद करने
बरबस आँखे तोड़ बैठीं ख़्वाब को
पलकें भी रोक न सकी सैलाब को
मैंने आपको देखा जब बरसों बाद
बस फिर देखता ही रहा आप को
कोई न जाने यारा, कौन था मजबूर
तुम गयी तो हुई मेरी जिंदगी चकनाचूर
बड़ी मुश्किल से संभाला खुद को मैंने
फिर लौटी हो बर्बाद करने, ये कैसा दस्तूर
इतने सालों, तुझे किश्तों में भुलाया हमने
इश्क़ का ये कर्ज मुश्किलो से चुकाया हमने
बनारस के किसी घाट पर चिता जली
अपनी राख को खुद गंगा में बहाया हमने
तुम अशिक़ी नहीं, हुस्न भरा तेज़ाब हो
गुनाह - ए - मोहब्बत का अजाब हो
हज़ारो सालों पहले ढोया मसीहा ने कंधों पर
मेरे सनम, तुम कायनात का वो श्राप हो।