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Yash Mehta

Abstract

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Yash Mehta

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इश्क़ फजूल

इश्क़ फजूल

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तुझसे इश्क़ अब फज़ूल लगने लगा है

तेरी तरफ़ देखना उल जलूल लगने लगा है

रोज़ वही सूरज इंडिया गेट पर उतरते हुए

हर शाम का साया तेरी सूरत सा लगने लगा है

वो राजपथ जिस पर बच्चे उड़ाते थे बुलबुले

किसी दूर दराज श्मशान सा लगने लगा है

कनाट प्लेस की रौनक लूटी कोरोना ने

सेंट्रल पार्क मेरे दिल सा वीरान लगने लगा है

मेट्रो की येल्लो लाइन, एम जी रोड का स्‍टेशन

दस बरस बीते, वक़्त फिर वही लगने लगा है


तुझे तब जाने ही दिया होता, तो अच्छा होता

तुझे रोकने का फैसला अब गलत लगने लगा है

ये तेरी दी हुई उदासी ऐसी काबिज हैं आँखों में

किसी ने कहा, तू किसी पीर सा लगने लगा हैं

तुझे क्या लगता हैं ये सड़के यूँ ही सुनसान रहेगी

ये हैं दिल्ली, मेरा शहर अब मुझ सा लगने लगा हैं

वो जो घूम रहे हैं आजकल दक्षिण पूरब के आसमानों में

उठती आवाज़ों से उन्हें सिंहासन जाने का डर लगने लगा है


इश्क़ भी किया तुमसे और रश्क़ भी किया तुमसे

तुमको क्यों लगता हैं कि सबको सब सही लगने लगा है

मेरी बात समझ सको तो समझो, ये तो सीधी सीधी है

न कहना फिर क्यों मेरा लिखा टेढ़ा लगने लगा है

कृष्ण सरीखा प्रेम और कृष्ण सरीखी राजनीति

ये नया रण हैं पर क्यों महाभारत सा लगने लगा है



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