पहचाना मुझे
पहचाना मुझे
हाँ! कभी मैं भी तुम्हारा दोस्त था,
दिन भर मेरे साथ ही खेला करते थे,
कितनी कहानियाँ सुनी हैं तुमने मेरे साथ,
मैं तुम्हारा बचपन, पहचाना मुझे?
था मैं तुम्हारी पहचान,
जब तुम थे दुनिया, दुनियादारी से अनजान,
वो बेफिक्री, बेपरवाही मेरे साथ ही थी,
मैं तुम्हारा बचपन, पहचाना मुझे?
वो जब खुशियाँ खिलौनों में ही मिल जातीं,
नींद लोरियां सुनकर गोदी में ही आ जाती,
रूठना तो तब सीखा ही कहाँ था,
हँसते-रोते दिन-दोपहर-शामें निकल जातीं।
तब भूख पैसे की नहीं, प्यार की थी,
मिट्टी से तो जिगरी यारी सी थी,
उसी में लोटना, उसी को खाना,
दो मनमौजी लोगों की दोस्ती निराली सी थी।
जब बिल्ली और बाबा हमको डराते,
ये रोज़ रात हमको लेने आ जाते,
जब कहानियों का लगता था मेला,
उस मेले में हर झूला अनोखा, अलबेला।
जब किसी के प्यार में कोई मतलब नहीं,
सपनों को बांधती कोई डोर नहीं,
जब हर रिश्तेदार, पड़ोसी लगता था अच्छा ,
और हर एक दोस्त था सच्चा ।
जब बीमारी सिर्फ पेट दर्द ही थी,
टेंशन, डिप्रेशन की जानकारी ही नहीं थी,
जब ज़िम्मेदारियाँ तो थीं,
पर सिर्फ ख़ुश रहने और नमस्ते करने की।
ज़िंदगी बढ़ जाती है आगे, उम्र के साथ,
छूट जाता है बचपना भी, ले हाथों में हाथ,
बस तुम मुझे दोस्तों के साथ बातें में याद करते हो,
देख छोटे बच्चों को अपने बचपन से दीदार करते हो।
