पहचान की अक्षुण्णता
पहचान की अक्षुण्णता
हर नारी को अपनी अलग
पहचान बनानी होगी।
दूसरों के सहारे जीने की आदत
को त्यागना होगा।
कब तक, आखिर कब तक
वो जीयेगी बोझ बनकर?
अपनी मंज़िल, अपना रास्ता,
स्वयं ढूँढना, तलाशना होगा।
फिर चाहे लाख बाधाएं आएं ,
लाख दीवारें खड़ी की जाएं।
हर बाधा को फतह करना होगा,
हर काँटे को उखाड़ फेंकना होगा।
अपनी पहचान की अक्षुण्णता
को बनाए रखना होगा।
जो उफन रहा है लावा बरसों से,
उसे आज बहने देना होगा।
देह तप चुकी है अब हमारी,
इस तपन से हम ही क्योंकर जले?
जलाया है हमें जिस जिसने,
इस ज्वाला को उन्हें ही सहना होगा।
पहचान की अक्षुण्णता को
जिलाये रखना होगा।