फासला कैसा
फासला कैसा


अब तो मैं भी कॉफ़ी प्रेमी
फिर मुझसे ये गैर कैसा
इश्क नहीं, परवाह नहीं
फिर निगाहों में मुझे खोने का डर कैसा,
हां मैं आवारा पागल दीवाना तुम्हारा
पर तुम्हें पाने के लिए इंतजार नहीं कर पाऊं
तुम्हारे लबों की खुशी न बन पाऊं
फिर ये बेपनाह मोहब्बत नाम कैसा,
जज्बाती हूं बह जाता हूं
पर तुम्हें नहीं सम्भाल पाऊं
फिर मर्द होने का अर्थ कैसा
लाख मना के बावजूद खोया रहूंगा
निगाहों में तेरे क्योंकि इसके बिना
मेरा अस्तित्व कैसा।