पदचिन्ह
पदचिन्ह
कच्ची, रपटली
झाड़, कंटीली, पगडंडियों पर
अधूरा, अधबना
फिसलता संभलता
कभी पूरा बन तना
लूक-छुप उभरता हूं मैं।
अस्तित्व मेरा
वन, आंगन
जन, मन
सूरज, चांद सा विशाल
कभी रहूं मैं सूक्ष्मतम
कभी धर लूं रूप विकराल।
योगी भोगी
ठग जग का
जन्मों, सदियों
जाने कब से
पथ दर्शक हूं मैं।
प्रभु के अंतस से
स्फटिक शिला तक
धरती के मस्तक पर भी
स्थाई अंकित हूं मैं।
कभी मृद्मय,
कभी लौहतम
औ निपट आभासी
कभी हूं रमता जोगी
कभी जड़ बनवासी।
क्या पता कहां मिलूं
कहां दिखूं
खोजो मुझ को
चाहे हिमसागर
चाहे मथुरा
या औघड़ काशी।
जनम मरण
जोवन बचपन
हर पल साथ निभाता
पदचिन्ह
दुनिया में कभी तेरी
कभी तुझ को दुनिया की
पहचान कराता हूं मैं।