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Dr. Anu Somayajula

Abstract

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Dr. Anu Somayajula

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पैसा अपना खेल दिखाता

पैसा अपना खेल दिखाता

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पैसा अपना खेल दिखाता

ख़ूब नचाता


कभी दौड़ते हम उसके पीछे

कभी खींचता वह

हमको पीछे

सिक्के की खनक कभी वह बनता

कभी नोट की वह

चादर बुनता

कैसे कैसे प्रपंच रचाता

ख़ूब नचाता


कभी मुट्ठी में बंधता वह

कभी

बंद मुट्ठी से रेत सा फिसलता

कभी बुलाता दूर खड़ा

और कभी

भंवरा बन सर पर है मंडराता

आंख मिचौली खेला करता

ख़ूब नचाता


जानो पैसा है कटी पतंग सा

दौड़ा करते हम धरने

छलांग लगाते, कभी उछलते

लहराती डोर थामने

रातों की नींद नहीं

दिन का भी चैन गंवाते

हम मुंह की खाते, वह हंसता जाता

ख़ूब नचाता


रिश्तों में हो रहा अबोला

कल जो अपना था, परे जा रहा ठेला

अनजानों की भीड़ हुई

बेगानों का अब लगता मेला

भीख की कटोरी में हो या तिजोरी के तालों में

भूखे की रोटी ना बन पाए

पैसा तब मिट्टी का धेला रह जाता

पैसा अपना खेल दिखाता

ख़ूब नचाता।


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