पैबंद
पैबंद
ठंडी छांव में सुकून पाने की खातिर
गर्म धूप में खुद को जलाते रहे
रात इतनी झूठी साबित हुई
सपने ख्वाबों में ही टूटते रहे
कफ़न भी नसीब न हुआ हमको
पुराने कपड़ों में ही संवरते रहे
उधड़ी हुई ज़िन्दगी को
उम्मीदों के पैबंद लगाते रहे
तमन्ना थी सब कुछ ठीक होने की
बरसो से इसी बात पर छलते रहे
जलती लाशों ने बांध दिया समा
जश्न मौत का मनाते रहे
बयां न किया दर्द-ए-दिल का लबों से
नजाकत की तहजीब से छुपाते रहे
दायर कर दिया अदालत में मुकदमा
गवाह साजिशों के बयान बदलते रहे
कितने धागे मन्नत के बांधे थे "नालन्दा"
उसकी रहमत के बगैर सब उलझते रहे
