पार्थसारथी
पार्थसारथी
शोक में डूबे थे अर्जुन द्वारका जाते हुए।
मन ही मन अपने मन को स्वयं बहलाते हुए।
क्यों छोड़ अकेला चले गए मित्र मेरे ओ सखा।
बिन तुम्हारे इस जगत में मेरे लिए है क्या रखा।
पूर्ण तो करना ही होगा जो किया अनुरोध है।
कर्तव्य पालन धर्म मेरा इस बात का भी बोध है।
अंततः पहुँचे नगर तो देख हतप्रभ रह गए।
अट्टालिका प्रासाद सारे सब जल में बह गए।
युद्ध भीषण लड़ परस्पर नष्ट हो गए नर सभी।
बालक अपाहिज वृद्ध नारी मात्र थे जीवित अभी।
सन्देश केशव का यही सब की रक्षा तुम करो।
दे सरंक्षण स्वयं का अब संताप सारे तुम हरो।
सब को कर एकत्र अर्जुन हस्तिनापुर चल दिए।
धन धान्य जो भी था बचा वो साथ में ही रख लिए।
मार्ग था दुर्गम वनों से जो था दस्युओं से भरा।
पर साथ में थे सव्यसाची भय भला हो क्यों जरा।
शोकाकुल तो थे सभी पर थोड़ी जगी थी आस।
पांडवों में था सभी को स्नेह समर्पण तथा विश्वास।
कि अचानक आ गया वन-दस्युओं का एक दल।
ललकारता बोला प्रमुख सर्वस्व अर्पण तुम करो।
अस्त्र शस्त्र रख कर धरा आत्म समर्पण तुम करो।
इस धृष्टता को देख कर क्रोध से बोले धनञ्जय।
मूर्ख मैं अर्जुन वही जिसने की है विश्व विजय।
प्राण तुमको हों प्रिय तो मार्ग मेरा छोड़ दो।
अपने अश्वों को किसी और दिशा में मोड़ दो।
पार्थ की चेतावनी पर दस्युओं ने न ध्यान दिया।
घेर कर अर्जुन के रथ को शर का संधान किया।
तब पार्थ ने गांडीव को उठा लिया निज हाथ में।
पर्याप्त था अर्जुन अकेला कोई और नहीं साथ में।
दस्युओं का पार्थ से फिर युद्ध वन में छिड़ गया।
महारथी अर्जुन अकेला दर्जनों से भिड़ गया।
विश्व का सर्वश्रेष्ठ योद्धा दिव्य अस्त्रों का धनी।
इन दस्युओं का सामर्थ्य क्या महँगी पड़ेगी दुश्मनी।
पर आश्चर्य की बात ये अर्जुन पराजित हो गया।
धन-धान्य को अपने लुटा वो दल पराश्रित हो गया।
हस्तिनापुर पहुँच कर सब भाइयों से की सभा।
पार्थ बोले कृष्ण बिन अब क्षीण होती है प्रभा।
नर है तभी जब हाथ उस पर हो नारायण का बना।
केशव बिना नहीं चैन है संताप में है मन सना।
कान्हा नहीं थे मात्र मेरे अश्व-रथ के सारथी।
डोर मेरी जिंदगी की भी उन्हीं के हाथ थी।
