पाप
पाप
कभी - कभी मैं बहुत
टूट जाती हूँ
तेरे रोज के नशे से
तू पीकर आता है
और बहक जाता है
फिर शुरू होता है
असली तांडव
हम दोनो के बीच
एक घमासान युद्ध
ज़िसमे हार जाती हूँ
हर बार मैं
तेरा वो मुझे गालियाँ देना
फिर उस पर हाथ उठाना
मुझे अनपढ़ होने का
एहसास दिलाता है
और अंदर ही अंदर मुझे
कमज़ोर करता जाता है
मैं कभी रोने लगती हूँ
और कभी चुप हो जाती हूँ
फिर अंजाने में ही तलाशने
लगती हूँ
उस काँधे को, जो मुझे मेरे
होने का एहसास दिलाता है
मै लिपट जाती हूँ उस काँधे से
वो समेट लेता है मुझे अपनी
बाहों में
वो पाप जो नहीं करना था कभी
हो जाता है, हर बार की तरह इस
बार भी..