पागल हूं
पागल हूं
अगर बेड़ियों में भी खेल कूदना,
कांटों को भी यूं चूमना,
पागलपन है,
तो हां मैं पागल हूं ।
अगर पिंजरों में तोतों सा हंसना,
खुद पर ही ताने से कसना,
पागलपन है,
तो हां मैं पागल हूं।
सूखे दरखतों में भी,
शाखों की छांव से लोभना,
बंजर पड़े मकानों में भी,
मुस्कराते इंसान को पोसना,
अगर पागलपन है तो,
हां मैं पागल हूं ।
सुराखों के उजाले में भी,
उम्मीद खोजना,
नफरत की चार दीवारी में भी,
वात्सल्य की पौध रोपना,
अगर पागलपन है,
तो हां मैं पागल हूं ।
ठंडक और भारीपन दे,
मैं वो भीगा आंचल हूं,
ऊसर पड़ी ज़मीं के ऊपर,
मैं वो काला बादल हूं,
अगर जिंदा होना पागलपन है तो,
हां मैं पागल हूं।