क्या लिखता
क्या लिखता
काफी वक्त हो गया,
अबतक कुछ सूझा नहीं,
मेरी कलम के अलावा,
मेरा कोई दूजा नहीं ।
जिंदगी से अपनी,
खुद को दफा करने चला था,
बिना मतलब के ही,
जज़ा करने चला था,
मैं भी कितना पागल हूं,
कलम से ही जफा करने चला था ।
कुछ नफीस होता,
तो प्यारा राग लिखता,
मौसम हसीन होता,
उसका लिहाफ लिखता,
मन में आक्रोश होता,
तो उसकी आग लिखता,
गर मुझको इश्क होता,
फलां को चांद लिखता,
अगर नफरत होती तो,
जहां को दाग लिखता,
खुद से उम्मीद होती,
खुद को चिराग लिखता,
आंखों में धूल होती,
सबकुछ मिराज लिखता,
आंखों में नींद होती,
तो कोई ख्वाब लिखता,
अगर विरक्ति होती,
तो फिर विराग लिखता,
अगर सांसें थम जाती,
तो फिर विराम लिखता ।
पड़ती मोहलत ना पूर,
कभी खुद में चूर,
कभी औरों में चूर,
आना तो कभी नहीं,
तो फिर कैसा जरूर,
यह हालत कैसी है,
डर के ही डर में चूर,
सबसे जुड़ा है कोई,
कोई घर में ही घर से दूर ।
