अंधेरे
अंधेरे
अक्सर लिखता यह कई बातें पर,
यह खुद पे ही लिखता कहां हैं,
लोग कहते सब बेअसर सा इस पे है,
यह तो एक चिकना घड़ा है,
चिकना बाहर से है किंतु,
यह अंदर दरारों से भरा है,
पानी निकल तो रहा है पर,
छींटों को दरारों ने फंसा है,
तुम तो कहोगे की खाली है,
इसमें अब क्या ही बचा है,
खाली तो होगा जरूर यह,
तुमने जो इतना ठगा है,
खुश तो दिखता है अक्सर,
पर मन में काश का सिलसिला है,
अब तो पोखर सूखे पड़े है,
इनमें सावन अब आता कहां है,
तुम कहते हो पत्थर है यह तो,
इसे महसूस कुछ होता कहां हैं,
मैं कुछ महसूस करके रोया था,
तुमने कहा की तू रोता हैं क्यों,
तू तो घर में सबसे बड़ा है,
शमा मिलता कहां है,
अब तो अंधेरे में खोता जहां है,
कहोगे यह तुम आंखें लाल हैं इसकी,
पर यह अरसे से सोया कहां है,
कोई कहता है मतलबी बन थोड़ा सा,
पर यह दिल गवाही देता कहां है,
जिंदगी में फर्ज ही इतने हैं,
यह दिल खुदगर्जी की अर्जी अब देता कहां हैं,
गाड़ी पे साथ चलने वाले लाखों मिलेंगे,
पर कोई पैदल साथ चलता कहां है,
एक बाहर और अंदर की,
यह मन दो जहां में फसा है,
मैं अब मतलब से नाते ना जोडूं,
अब मुझमें ही मेरा जहां है,
मैं बहुत कुछ और कहना
चाहूं पर,
कोई मेरी सुनता कहां है।