ओ बहादुर, बापू!
ओ बहादुर, बापू!
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अर्श से बापू ने जब फर्श पे आकर,
था रहना सदा को स्वीकार किया।
हरा न सके तीर, तुपक, तलवार जिन्हें,
फिरंगी को अहिंसा से तुमने हार दिया।
वह सहज,सरल और मर्यादित व्यवहार,
संग तेरे जब जनता ने स्वीकार किया।
गोरों की अकल तब ठिकाने लग गई,
स्वदेश लौटना निगोड़ो ने स्वीकार किया।
छरहरी काया और आंख पे चश्मा,
धोती, गीता और लाठी का सहारा।
सत्य- अहिंसा के गुप्त हथियारों से,
ओ बापू !तुमने था फिरंगी को हारा।
वह दो सौ वर्षों की गुलामी की काई,
तुमने सहज सरल संघर्षों से धो डाली।
बड़ी मुश्किल से पाई आजादी की कीमत,
हमने स्वार्थ लालच में सब है खो डाली।
था शास्त्री जी के पावन प्रकल्पों ने,
भारत के मान को विकट में संभाला।
दुर्भिक्ष पड़ा था भारत में जब भारी,
किया उस अंधेरे में भी था उजाला।
वह गरीब का बेटा सरताज बना जब,
भव्य भारत भूमि को अति हर्ष हुआ।
उस फर्श पे रहने वाले ने था जब,
निज मेहनत से उन्नत अर्श छुआ।
दो अक्टूबर को जन्मे इन दोनों ने,
था भारत को अति उत्कर्ष दिया।
भूल के वे सब मान मर्यादाएं हमने,
देखो तो भारत का क्या है किया?
याद रखेगी कई सदियां तुमको,
ओ बहादुर,बापू! भारत के प्यारे।
सूरज चंदा रहेंगे जब तक जग में,
जाएंगे तब तक तुम दोनों पुकारे।
