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AMAN SINHA

Abstract Tragedy Inspirational

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AMAN SINHA

Abstract Tragedy Inspirational

नर हूँ ना मैं नारी हूँ

नर हूँ ना मैं नारी हूँ

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नर हूँ ना मैं नारी हूँ लिंग भेद पर भारी हूँ

पर समाज का हिस्सा हूँ मैं और जीने का अधिकारी हूँ


जो है जैसा भी है रुप मेरा मैंने ना कोई भेष धरा                

अपने सांचे में कसकर ही ईश्वर ने मेरा रुप गढ़ा


जब माँ के पेट से जन्म लिया पिता ने जब मुझको गोद लिया

मेरी शीतल काया पर ही शीतल मेरा नाम दिया


जैसे जैसे मैं बड़ा हुआ सबसे अलग मैं खड़ा हुआ

सबसे हट कर पाया खुद को अपने ही तन में बंधा हुआ


दिन बीते काया बदली मेरी खुद की आभा बदली

बदन मेरा गठीला था पर मेरी हर एक अदा बदली


तब मैंने खुद को समझाया दिल को अपने बहलाया

जानकर खुद की असली पहचान मैं थोड़ा ना शरमाया

      

मर्द के जैसे मेरे बदन में औरत कोई छुपी हुई थी

निखर गई अब चाल ढाल जो मेरे अंदर दबी हुई थी


देखकर मेरी ऐसी हालत माँ ने मेरा त्याग किया

मैं ज़िंदा था लेकिन मेरी चिता को आग दिया


मां ने जब ठुकराया था, पिता साथ निभाया था

पर समाज के तानो से, उसका मन भी घबराया था


सब कहते थे की श्राप हूँ मैं, उनके पूर्व जन्म का पाप हूँ मैं

देखकर उनको ये लगता था, जैसे उनका संताप हूँ मैं


जो थे मेरी संगी साथी अब मुझसे कतराते थे

साथ मेरे जो खेले थे वो दूर से ही मुड़ जाते है


पर इसमें मेरा दोष है क्या, मैंने ये तन ना मांगा था

जब मन से स्त्री बनाया है तो तन भी औरत का देन था


मैं सच को ना ठुकराऊंगा, तन से मन का हो जाऊंगा

जो चाहे मुझसे नाता रक्खे, मैं खुद पराया ना हो पाऊंगा 


अब मैं चौराहे पर मिलता हूँ अब वहीं पर रहता हूँ

आती जाती सवारी को बस आशीष बेचता रहता हूँ


नर से थोड़ा कम हूँ मैं नारी से थोड़ा ज्यादा हूँ

दोनों का हिस्सा है मुझ में मैं दोनों आधा आधा हूँ


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