नज़्म
नज़्म


जेहन में ख्याल आया कि एक नज़्म रचाए
कागज़ पर स्याही की आड़ी तिरछी लकीर बनाए
पर ये लकीरें बयाँ करेंगी क्या?
तुम्हारे ख्याल या हमारे जज्बात
या फिर जज़्बाती ख्याल।
जो वक्त-बे-वक्त बदलेंगे अपने मिज़ाज
क्योंकि ये है हकीकत से अंजान।
अल्फ़ाज़ो की यही बेपरवाही
कर देती है हमे तुम्हारी नजरों में गुमनाम
भूला देती है जुबान-ए- मोहब्बत,
और वो खुशनुमा शाम।
वो यादे,
सात जन्म न सही पर इस जन्म साथ निभाने के वादे
वादे जो अब खंजर है, ख्वाब जो अब बंजर है,
फिर भी खूबसूरत दिल-ए-मंजर है।
तुम हो बाकियों से अलग, तुमने ये एहसास दिलाया,
न सिर्फ हमे न जाने कितनों को ये सुनाया
पर खुश है हम आज
नहीं शुक्रगुज़ार हैं
कि एहसास-ए-ख्वाब कराया,
खोए हुए उस इन्सान से रूबरू कराया,
एक बेजान शरीर को रूह से मिलाया।
जज़्बाती ख्याल को बयाँ करेंगे
जहन में ख्याल आया कि आज नज्म-ए-रूबरू रचेंगे।